सामाजिक समरसता का भारत पूरे विश्व की आवश्यकता -प्रो. ईश्वर शरण विश्वकर्मा
दिनेश कुमार मिश्र, विशेष संवाददाता : गोरखपुर। उत्तर प्रदेश उच्च शिक्षा आयोग के पूर्व अध्यक्ष प्रो. ईश्वर शरण विश्वकर्मा ने कहा कि भारत सिर्फ एक देश नहीं है बल्कि यह पूरे विश्व का मार्गदर्शन करने के लिए एक अपरिहार्य आवश्यकता भी है इसलिए इसका समर्थ और सशक्त होना अति आवश्यक है।
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प्रो. विश्वकर्मा मंगलवार को ब्रह्मलीन महंत दिग्विजयनाथ की 55वीं और राष्ट्रसंत ब्रह्मलीन महंत अवेद्यनाथ की 10वीं पुण्यतिथि के उपलक्ष्य में समसामयिक विषयों के सम्मेलनों की श्रृंखला के तीसरे दिन .सामाजिक समरसता .. महायोगी गोरखनाथ और नाथपंथ के विशेष संदर्भ सन्दर्भ में विषयक सम्मेलन को बतौर मुख्य अतिथि संबोधित करते हुए कहा कि भारत के समर्थ और सशक्त होने के लिए यह अनिवार्य हो जाता है कि जहां सामाजिक समरसता अपने उच्च स्तर पर दिखे। सामाजिक समरसता का भारत पूरे विश्व की आवश्यकता है।
उन्होंने कहा कि सामाजिक समरसता के लक्ष्य को प्राप्त करने के लिए हमें अपने ऋषियों और संतों की उस परंपरा से प्रेरित होना होगा जिन्होंने हमें समरस और समर्थ समाज की विरासत दी थी। यह सबके लिए गौरवपूर्ण अनुभूति है कि समरस समाज के लिए नाथपंथए इसके आभिर्भावक शिवावतार महायोगी गोरखनाथ और इस परंपरा के संवहन से अहर्निश एवं अद्यतन जुड़ी गोरक्षपीठ की मार्गदर्शक भूमिका इस लक्ष्य की ओर उन्मुख है।
प्रो. विश्वकर्मा ने कहा कि सभ्यता के प्रादुर्भाव काल से ही भारत पूरी दुनिया में अन्य देशों से बिल्कुल भिन्न रहा है। महाभारत में भगवान श्रीकृष्ण, अर्जुन से कहते हैं कि भारतवर्ष पूरे विश्व में श्रेष्ठतम है। इसका कारण यह है कि एकमात्र ऐसा देश है जिसके समाज का निर्माण ऋषियों, मुनियों एवं संतों की चिंतन परंपरा से हुआ है। संतों की चिंतन परंपरा ने ही मनुष्य को एक समाज के रूप में सबसे विचारवान प्राणी बनाया। मनुष्यता को केंद्र में रखकर हमारे ऋषियों और संतों ने समाज को जो विरासत दी, उसकी सबसे अमूल्य निधि रही समरसता। संतो द्वारा बनाए गए हमारे समाज की ही विशेषता थी कि हमें वसुधैव कुटुंबकम का दर्शन विरासत में प्राप्त हुआ।
प्रो. विश्वकर्मा ने कहा कि जब हमारी विरासत सामाजिक समरसता को लेकर इतनी समृद्धि थी तो यह विचारणीय प्रश्न है कि आज हमें इसे लेकर अलग से चिंतन क्यों करना पड़ रहा है। उन्होंने कहा कि भारत की सामाजिकता और सामाजिक चिंतन प्रणाली का एक दौर ऐसा भी था जब विदेशी अध्येता भारत का दर्शन करने और यहां के विचार.दर्शन का अध्ययन करने आते थे। उन्होंने कहा कि वाह्य आक्रमण, धर्म परिवर्तन जैसे कारण ही सामाजिक समरसता कम होने के लिए जिम्मेदार नहीं है बल्कि सबसे बड़ा कारण हमारा संतों की परंपरा से विलग होना रहा है।
प्रो. विश्वकर्मा ने हरेक कालखंड में संतों की भूमिका महत्वपूर्ण बताते हुए कहा कि संत विकृति के बाजार में संस्कृति की शंखनाद हैं। संत की भूमिका उस धोबी की है जो सत्संग के धोबीघाट पर मनुष्यों की कलुषता के दाग को धो डालता है। इस महत्वपूर्ण भूमिका के परिपेक्ष में देखें तो समाज में सबसे बड़ा योगदान हमें नाथपंथ की तरफ से देखने को मिलता है। उन्होंने कहा कि नाथपंथ के संतों ने सिर्फ सामाजिक आंदोलन का ही नेतृत्व नहीं किया है बल्कि स्वाधीनता के आंदोलन में भी समाज को सही दिशा दिखाई है। देश जब गुलामी की बेड़ियों में जकड़ा हुआ था तब शिवावतार योगी गोरखनाथ के अनुयायी नाथपंथी योगी सारंगी लेकर समाज को जगाने के लिए निकल पड़े थे।
उन्होंने कहा कि गोरख पीठ के पेठाधीश्वरों ने सामाजिक समरसता को मजबूत करने मेंअथक प्रयास किए हैं। इस पीठ के ब्रह्मलीन महंत दिग्विजयनाथ और महंत अवेद्यनाथ ने जातिवाद और अस्पृश्यता से मुक्ति के लिए जो योगदान दिए हैं वह अतुलनीय हैं। उन्होंने कहा कि महंतद्वय के नेतृत्व में आगे बढ़ा राम मंदिर का आंदोलन वास्तव में सामाजिक समरसता को भी प्रतिबिंबित करता है। जिस प्रकार भगवान राम ने अपने जीवन में निषादराज, शबरी आदि के माध्यम से सामाजिक समरसता का आदर्श प्रस्तुत किया था उसी तरह राम मंदिर को लेकर चलाए गए अभियान में भी महंत अवेद्यनाथ ने दलितों, वंचितों को आगे लाकर सामाजिक समरसता को यथार्थ रूप में स्थापित किया। उन्होंने कहा कि हमारी सनातन संस्कृति सबके साथ रहने की अर्थात कौटुंबिक संस्कृति है। इस संस्कृति को आगे बढ़ाने में नाथपंथ की विशेष भूमिका सदैव परिलक्षित हुई है। वर्तमान में नाथपंथ का नेतृत्व करने वाली गोरक्षपीठ ने सामाजिक समरसता को सुदृढ़ करने के लिए शिक्षा, चिकित्सा और सेवा के अनेक प्रकल्पों को भी आगे बढ़ाया है।
सम्मेलन में विषय प्रवर्तन करते हुए दीनदयाल उपाध्याय गोरखपुर विश्वविद्यालय में प्राचीन इतिहास, पुरातत्व एवं संस्कृति विभाग की सहायक आचार्य डॉ. पद्मजा सिंह ने कहा कि सामाजिक समरसता नाथपंथ का मूल है। समाज के अंतिम छोर के व्यक्ति को मुख्य धारा में शामिल करने के लिए इसके कार्यों की विस्तृत श्रृंखला है। उन्होंने कहा कि भारत में सामाजिक पुनर्जागरण का शंखनाद महायोगी गोरखनाथ ने उस कालखंड में किया जब सामाजिक विखंडन तेजी से बढ़ रहा था। महायोगी गोरखनाथ ऐतिहासिक युग में भारतीय इतिहास के ऐसे पहले तपस्वी हैं जिन्होंने विशुद्ध योगी होते हुए भी सामाजिक चेतना का नेतृत्व किया। वास्तव में उन्होंने नाथपंथ का पुनर्गठन ही सामाजिक पुनर्जागरण और समरसता को बढ़ाने के लिए किया। उन्होंने सामाजिक समरसता की वह लौ प्रज्ज्वलित की जिसकी लपटें जाति.पांति, छुआछूत, ऊंच.नीच, अमीरी.गरीबी, पुरुष.स्त्री, विषमताओं और क्षेत्रीयतावाद जैसी प्रवृत्तियों को निरंतर जलाती रहीं हैं। नाथपंथ के विचार.दर्शन ने एक ऐसी योगी परंपरा को जन्म दिया जिसने भारतीय संस्कृति की एकाकार सामाजिक चिंतन की प्रतिष्ठा को ही अपना उद्देश्य बना लिया और इसे नाथपंथ की अध्यक्षीय पीठ गोरक्षपीठ के प्रकल्पों में देखा जा सकता है।
डॉ. पद्मजा सिंह ने कहा कि गोरक्षपीठ की यह विशेषता है कि इसके कपाट सभी के लिए खुले रहते हैं। इस पीठ के सभी महंत बिना भेदभाव समाज में सभी के यहां, सभी के साथ पानी पीते हैं, भोजन करते हैं और अपने भंडारे में सभी के साथ भोजन प्रसाद ग्रहण करते हैं। उन्होंने गोरक्षपीठ के मूर्धन्य पीठाधीश्वरद्वय ब्रह्मलीन महंत दिग्विजयनाथ और महंत अवेद्यनाथ के जीवन वृत्त पर प्रकाश डालने के साथ ही इन दोनों महान विभूतियों के सामाजिक, सांस्कृतिक और राष्ट्रीय अवदान तथा सामाजिक समरसता को बढ़ावा देने के लिए किए गए अविस्मरणीय कार्यों को विस्तार से रेखांकित किया।
सम्मेलन को संबोधित करते हुए काशी से आए महामंडलेश्वर संतोष दास उर्फ सतुआ बाबा ने कहा कि नाथपंथ सबका और सबके लिए है। उन्होंने कहा कि यह पंथ किसी के साथ भेदभाव नहीं करता है। इसकी विशेषता को कोई भी गोरक्षपीठ आकर देख सकता है। गोरक्षपीठ ने सदैव समाज को जोड़ने और समरसता बढ़ाने के लिए क्रांतिकारी कदम उठाने का काम किया है। उन्होंने कहा कि सामाजिक समरसता की जो अलख शिवावतार गुरु गोरखनाथ ने जगाई थी, वह नाथपंथ के संतों के लिए आज भी पथप्रदर्शक है। उन्होंने कहा विगत सौ सालों में सामाजिक समरसता बढ़ाने के लिए गोरक्षपीठ और इसके पीठाधीश्वरों, विशेषकर ब्रह्मलीन महंत दिग्विजयनाथ और महंत अवेद्यनाथ ने जो कार्य किए हैं वे अनिर्वचनीय हैं। अपने गुरुजनों का अनुसरण कर वर्तमान पीठाधीश्वर महंत योगी आदित्यनाथ भी सामाजिक समरसता के आयाम को नई ऊंचाई पर पहुंच रहे हैं।
इस अवसर पर दिगम्बर अखाड़ा अयोध्या के महंत सुरेशदास, नासिक महाराष्ट्र से पधारे योगी विलासनाथ, कटक उड़ीसा से आए महंत शिवनाथ, सवाई आगरा से आए ब्रह्मचारी दासलाल, अयोध्या से आए महंत राममिलनदास, देवीपाटन शक्तिपीठ, तुलसीपुर के महंत मिथलेशनाथ और कालीबाड़ी के महंत रविन्द्रदास आदि प्रमुख रूप से उपस्थित रहे।
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